लम्हों की गाथा
(1)
पानी
मेरी माँ ससुराल में पानी भरने के लिए ही लाई गई थी। राजस्थान के गाँवों में जो व्यक्ति थोड़ा खर्च उठा सकते है; वे दो शादियाँ कर लेते हैं। एक पत्नी अच्छे परिवार से घर में राज करने के लिए और दूसरी गरीब घर से पानी लाने के लिए। ऐसा करना नौकर रखने से सस्ता जो पड़ता है।
माँ सुबह तीन बजे उठती, कोसों दूर से पानी लाती और फिर दिन भर घर के काम में लगी रहती।
माँ के सुबह अँधेरे उठ जाने के कारण, मैं भी जल्दी ही उठ जाता था। तभी परिश्रम कर मैं पढ़-लिख गया। कार में बैठे माँ की बार-बार कही बात दिमाग में आ रहीं थी, “लाला, मन लगाकर पढ़ ले, ये पढाई तेरे काम आएगी।"
दो साल बाद गाँव जा रहा हूँ, माँ को लेने। अब माँ शहर में मेरे साथ ही रहेगी। सुबह चार बजे घर पहुँचा। माँ घर पर नहीं थी। ध्यान आया, वह तो पानी लेने गई होगी। हाड़ कंपा देने वाली ठण्ड थी।
शीत भरे अँधेरे में कार पानी वाले रास्ते पर दौड़ा ली। पिछले पच्चीस सालों से माँ कितना कठिन जीवन जी रही है! सोच लिया था, आज के बाद माँ कभी इस सूने रास्ते से पानी लेने नहीं जाएगी।
मुझे देखकर माँ ने गले से लगा लिया, बोली -"यहाँ क्यों आया लालता? कितनी ठण्ड है। चल, घर चल, मैं पानी ले कर आती हूँ।"
मैने माँ का हाथ थाम कर कहा- "माँ, घड़ा यहीं छोड़ और मेरे साथ घर चल।"
माँ के लिए पानी छोड़ना किसी आश्चर्य से कम नही था, वह बोली, "बेटा, फिर दिन भर...?”
मैने माँ को बीच में ही रोक कर कहा- "उनको एक दिन बिना पानी के भी रहने दे न माँ!"
विधवा माँ को अपने साथ लेकर शहर आ गया। सोसायटी में मेरा फ्लैट है, सारी सुविधाओं से युक्त। सायंकाल माँ को स्विमिंग पूल पर ले गया। वहाँ माँ उदास हो गई। मुझे तैरता देख वह रोने लगी। घर पहुँचकर माँ से पूछा- "क्या बात है माँ, तुम उदास क्यों हो गई?"
माँ ने दर्द भरे स्वर में कहा- "जिन चार घड़े पानी ने पूरी ज़िन्दगी का सुख ले लिया, उस पानी का ये हाल...!"
मैंने भी क्या माँ के दर्द को समझा था? यदि समझा होता तो…
***
(2)
भविष्य
रवि अपनी रोती हुई माँ को समझाते हुए बोला, "माँ,
रोवो मत, जो हो रहा है उससे घबराओ नहीं।"
दुःख से माँ का दिल सिसक रहा था। अपने आँसुओं को
रोकते हुए बोली-"दिमाग ख़राब हो गया है मेरा और साथ में तेरा! तेरे ताऊजी क्या इस काम के लिए तुझे गाँव से लाये थे?"
अपने दर्द को छुपाकर रवि बोला, "माँ, क्या करता? पिताजी की बीमारी, सूखे खेत, गाँव में आगे की पढा़ई के लिए न तो पैसे थे, न सुविधा। शहर आने को मिला, ये क्या कम है?"
"तू शहर पढ़ने आया था या नौकरों की तरह काम करने?"
"माँ, ताऊजी ने अच्छे कॉलेज में दाख़िला दिलवाया है। मुझे वजीफ़ा भी मिल रहा है।"
"घर में शराब के जूठे बर्तन उठा रहा है। एक कमरे में बाप तो दूसरे में बैठा बेटा तुझे आवाजे लगा रहे हैं। शर्म नही आती?"
"शर्म किस बात की माँ, आज मज़बूरी है, पढ़ना है इसलिए ये काम भी कर रहा हूँ।
ताई के लाड़ से ही भाई का ये हाल हुआ है। उसे इतना सर चढ़ा लिया कि आज शराब… । पहले ताऊ जी नही पीते थे, पर भैया के दुःख ने उन्हें भी शराबी बना दिया।”
“मुझे तो डर है कि कल को तू भी कहीं इन की तरह…” माँ की आँखें भविष्य की आशंका से भयभीत नज़र आ रही थीं।
“नहीं माँ, तुम्हारा बेटा इतना कमज़ोर नहीं है। मुझे पढ़ना है, …बापू का इलाज करवाना है, मैं कैसे भटक सकता हूँ माँ…?” बेटा माँ की आँखों से आँखें मिला बोल रहा था।
***
(3)
रोशनी
दिये और तेल खरीद कर घर जा रही हूँ। धनतेरस का दिन है। जाकर पहले खाना बनाना है, फिर दिये जला लूँगी। बेटे को बुखार है। माँ इतनी कमज़ोर है कि उससे कुछ काम नहीं हो पाता।
घर पहुँची तो पड़ोसन रज़िया मुन्नी को गोद में लिए बैठी थी। मुझे देखकर बोली, “आज भी देर कर दी, तेरी मालकिन को दया नहीं आती क्या तुझ पर?”
थकी आवाज़ में मैंने कहा, “त्यौहार के दिन काम ज़्यादा रहता ही है। फिर मेहनताना भी ठीक-ठाक मिल जाता है, वह भी समय पर। ये भी क्या कम है, आज के ज़माने में!”
“अच्छा ठीक है। मैंने आटा लगा दिया है और भाजी काट दी है। ला, दिये मैं पानी में डाल देती हूँ। तू इस मुन्नी को संभाल, कब से रो-रोकर हलकान हुए जा रही है।”
रज़िया बोली।
मैं सोच रही थी, रज़िया नहीं होती तो मैं कैसे काम पर जा पाती? इसके भरोसे ही तो छोड़ जाती हूँ, बेटे, मुन्नी और माँ को। रज़िया दीये पानी में डालकर बोली, “अब मैं जा रही हूँ, मुझे भी रोटी बनानी है।”
“रज़िया, देख न बाहर कितनी रोशनी है।” “हाँ, तू भी कर लियो अपने दरवज्जे रोशनी, दिये भीग रहे हैं अभी।”
पर मेरे मन में तो कुछ और ही चल रहा था। मैंने जल्दी से डिब्बे में से गुड़ का टुकड़ा निकाला और बोली, “रज़िया जरा रुक!”
अब क्या हुआ?” रज़िया जाते-जाते ठिठक गई। जवाब में
मैंने रजिया के मुँह में गुड़ का टुकड़ा डाल दिया और बाँहें फैलाकर बोली, “दरवज्जे पर रोशनी तो वे चार दिये करेंगे ही, पर असली रोशनी तो तेरे दिल में है!”
***